लोगों की राय

लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख

छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

432 पाठक हैं

जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता

 

(1)


मेरे घर में एक अदद टेलीविजन सेट है, जो पूरे साल बंद ही रहता है। हाँ कभी-कभार क्लासिक फिल्में देखने के लिए खोला जाता है।

उस दिन टेलीफोन पर किसी औरत की आवाज़ ने मुझसे अनुनय किया आप कृपया अपना टी. वी. ऑन करेंगी?

मेरा ख्याल था टी. वी. पर मुझे शायद गालियाँ दी जा रही होंगी। ये इंकलाब वाले तो अंधाधुंध मुझ पर गालियाँ बरसाए जा रहे हैं। टी. वी. भी मेधा या विश्वास में, इंकलाब से ज़्यादा उन्नत नहीं है, इसलिए मुमकिन है कि बंगलादेश का यह जातीय माध्यम भी मेरी जान की दुश्मन बनी, सस्वर हो उठी हो। धूल-धूसरित टेलीविजन का बटन दबाते ही तुमुल झगड़े की आवाज ने मुझे विस्मित कर दिया। औरत-मर्द झगड़े पर उतर आए थे। मैं चाय की गर्मागर्म प्याली लिए, टेलीविजन के सामने आ बैठी। पता नहीं, यह मेरा सौभाग्य था या दुर्भाग्य। शायद सौभाग्य से ही मुझे ज़्यादा देर तक नहीं बैठना पड़ा, जरा देर बाद ही कार्यक्रम ख़त्म हो गया। तरीकुल इस्लाम नामक मंत्री महोदय ने खरखराती आवाज़ में जो कुछ कहा, वह इतनी बचकानी वातें थीं कि मुझे हैरत हुई कि इस शख्स में महिला विषयक मंत्री बनने की क्या कोई योग्यता है? जिस शख्स में औरत के प्रति बूंद भर भी श्रद्धा-बोध नहीं है, जिसे औरत की मर्यादा-अमर्यादा के बारे में ज़रा भर भी जानकारी नहीं है, वे भले किसी और विषय के मंत्री हों। मुझे कोई एतराज नहीं है (वैसे भी इतना एतराज उठाने जाओ तो ठग-बटमार की पहचान में ही, देह का सारा गहना उजड़ जाएगा। समाज में भले दो-एक शुद्ध सत्य इंसान मिल जाएँ, मगर मंत्री सभा में मिलना मुश्किल है। अशुद्ध और बेईमान होना ही मंत्री होने का अहम गुण है)। लेकिन वे जनाब महिला विषयक मंत्री क्यों बन गए? मंत्री महोदय ने फरमाया कि चूंकि सास-बहू में झगड़ा होता है, इसलिए औरत ही औरत की दुश्मन है! देश के चरम अशिक्षित लोग ही ऐसी बेतुकी बातें करते हैं। मंत्री जनाब ने भी की! लेकिन एक सीधी-सी बात उनकी समझ में नहीं आती कि पर-निर्भर लागों में यही दस्तूर होता है। वे लोग निर्भरता की खूटी का ज़ोर ही लगाते हैं। सास, बेटे के दम पर बोलती है, बहू पति के दम पर! मर्द का पलड़ा जिस तरफ भारी होता है, चाहे वह माँ हो या बीवी, उसी तरफ का पलड़ा ज़्यादा भारी होता है! यानी मूल ज़ोर मर्द का होता है, औरत का नहीं! लेकिन मंत्री महोदय बेअक्लों की तरह गला फाड़ते रहे और उन्होंने काफी मूल्यवान बातें कही हैं, यह सोचकर मन ही मन काफी तृप्त भी हुए। उनकी ढुलमुल आँखों में मुझे यही नज़र आया! (ज़्यादा आत्मसंतोष हो, तो किसी-किसी की आँखें भी हँस पड़ती हैं)। उस कार्यक्रम में किसी अन्य सज्जन ने कनाडा की मिसाल देकर यह समझाने की कोशिश की कि चूंकि उन्नत देशों में भी नारी पर ज़ोर जुल्म होते हैं। तो इस अनुन्नत देश में भी अगर ऐसा हो रहा है, तो असुविधा कहाँ है? हाय रे, बेअक्लों का झुण्ड। कनाडा में जो-जो 'अच्छा' घटा है, उसे धारण करने की योग्यता क्या इस समाज में है? तो फिर वहाँ की 'बुरी' बातें धारण करके, हम खुश क्यों होते हैं? इस देश में तो औरत को इंसान होने का ही सम्मान नहीं मिलता। इस देश में तो औरत को अमानुष बनाने का कानून विराज करता है। समाज में उसे अपमानित करने का नियम विराजमान है! परिवार में उसे दासी बनाए रखने का रिवाज विद्यमान है। कनाडा में अगर कोई औरत निर्यातित हुई है तो यहाँ के पुरुषों को बगलें बजाने की क्या ज़रूरत है? जिन्हें अपने देश की अस्वस्थता, अपने देश के अधःपतन के प्रति कोई शिकायत नहीं है, जिन्हें अपने देश में हो रहे नारी निर्यातन कातर नहीं करते, वह इस इंतज़ार में है कि कब किस सभ्य देश में किसी असतर्क मुहूर्त में कोई मूल-भ्रांति होगी और जो उन मूलों का उल्लेख करके ही अपने कुकर्मों के लिए तसल्ली ढूँढ़ते फिरते हैं-उसकी धूर्तता और साथ ही चरम मूर्खता के प्रति करुणा करने की, मेरे मन में तीखी चाह जागती है।

उस कार्यक्रम में शामिल किसी अन्य सज्जन ने फरमाया-उन्हें नहीं मालूम कि भारत में हिंदुओं पर कौन से नियम लागू हैं। लेकिन उन्हें उसी क़ानून की नक़ल में, यहाँ भी हिंदू-क़ानून तैयार करना होगा। इस देश में हिंदू आज भी शास्त्रसम्मत तरीके से ही चलते हैं। वैसे मुसलमान भी शास्त्र से काफी बाहर चलते हैं। ऐसी बात भी नहीं है। असल में हिंदू-मुसलमान का विचार करते हुए, कानून नहीं बनाना चाहिए। धर्म के साथ सभ्यता का विरोध चिरकालीन है। क़ानून अगर सभ्य न हो, तो इंसान हरगिज सभ्य नहीं होगा। कानून में हिंदुत्व और मुसलमानत्व मानकर चलना असभ्यता के अलावा और कुछ भी नहीं है। अगर कानून बनाना ही है तो इंसान के लिए एक आधुनिक, सभ्य कानून बनाने की जरूरत है। इसके अलावा इस देश के असभ्य, असंस्कृत, अनाधुनिक, अधम इंसानों के लिए, जितनी जल्दी संभव हो, काफी कठोर और सख्त कानून बनाना निहायत ज़रूरी है कि मामला चाहे उत्तराधिकार का हो, विवाह का हो, तलाक या संतान अधिकार का हो, औरत-मर्द में कहीं, कोई फर्क नहीं होगा। इंसान के तौर पर सभी समान होंगे, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान; बौद्ध हो या ईसाई!

(2)


आजकल एक नई बात भी उठने लगी है! मर्द को अगर दूसरा या तीसरा या चौथा विवाह करना है तो इसके लिए अदालत से अनुमति लेनी होगी। पहले बीवी की अनुमति ज़रूरी होती थी। और अब अदालत से अनुमति लेनी होगी। इसमें औरत का क्या भला हुआ? मर्द के लिए अदालत से अनुमति लेना, क्या कोई मुश्किल काम है। जो वे लोग खौफ़ खाएँ? इस देश में न अदालत दुर्लभ है, न अदालत की अनुमति! वात जब उठी ही है, तो मर्दो के इस 'शौकिया विवाह' पर बंदी लगाने का प्रसंग क्यों नहीं उठाया जाता? यह प्रसंग उठाने की क्या हिम्मत नहीं होती? मर्दो को थोड़ा-बहुत खुश करते हुए बिल पास न किया जाए, तो शायद काम नहीं चलता। अगर कोई बिल पास करना ही है, तो यह अनुमति का बकवास न करके 'बहु विवाह' निषिद्ध करने वाला बिल ही पास करना होगा। यह सब खुदरा संशोधन हमें मंजूर नहीं है। इस घुन-खाए समाज में आमूल परिवर्तन चाहिए। सभ्य कानून चाहिए; इंसानी कानून चाहिए, धर्म या असत्य की नहीं, अपमानजनक कानून अब नहीं चलेगा।

भात की भूख, मुट्ठी भर मीठे मुरमुरों से मिटाने की कोशिश की गई, तो हम सावधान किए देते हैं कि हम अनशन पर उतरेंगी। अतिशय कम में संतुष्ट होने के दिन अब गुज़र गए, अब हमें वह सब कुछ चाहिए, जो हमारा प्राप्य है। अब सारा का सारा अधिकार चाहिए।




...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book